साहित्य समाज का दर्पण है अथवा साहित्य और समा

प्रस्तावना-, सरिता सिंधु की व्याकुल बांहो में लीन हो जाने के लिए दौड़ती चली जाती है.रुपहली, चांदनी और सुनहली रश्मियाँ सरिता की अल्हड़ लहरों पर थिरक थिरककर उसे मोहने करना चाहती है.और न जाने कब से किसी में अपनी अस्तित्व खो देने को आतुर है.अपने अस्तित्व को एक दूसरे में लीन कर देने की इस आदिम आकांक्षा, को मानव युग युग से दिखता चला आ रहा है.प्रकृति के इस अनेकों लोग जाल को देखकर वह स्वयं को उसमें बन्द कर देना चाहता है.और फिर उसके हृदय से सुकोमल मधुर व आनंददायक गीतों का उद्गम होता है.उसके अंतर्मन में गूंजते शब्द विचार और भाव उसकी लेखनी को स्वर प्रदान करने लगते है.परिणामत विभिन्न विधियों पर आधारित साहित्य का सृजन चला जाता है.इस प्रकार साहित्य युग और परिस्थितियों पर आधारित अनुभवो एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है.यह अभिव्यक्ति साहित्यकार के हृदय के माध्यम से होती है.कवि और साहित्यकार अपने युग वृक्ष को अपने आंसुओं से सीचते है.जिससे आनेवाली पीढ़ीयां उनके मधुर फल का आस्वादन कर सके.

साहित्य का अर्थ- साहित्य वह है.जिसमें प्राणी के हित की भावना निहित है.साहित्य मानव के सामाजिक संबंधों को दृढ़ बनाता है.क्योंकि उसमें संपूर्ण मानव जाति का हित निहित रहता है.साहित्य द्वारा साहित्यकार अपने भाव और विचारों को समाज में प्रसारित करता है.इस कारण उसमें समाजिक जीवन स्वय मुखरित हो उठता है.

साहित्य की विभिन्न परिभाषाएं- डॉ श्याम सुंदर दास ने साहित्य का विवेचन करते हुए लिखा है- भिन्न-भिन्न कवि कृतियों का समष्टि संग्रह ही साहित्य है.मुंशी प्रेमचंद्र ने साहित्य को जीवन की आलोचना का है.उनके विचार से साहित्य चाहे निबंध के रूप में हो कहानी के रूप में हो या कवि के रूप में हो साहित्य को हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए आंग्न विद्वान मैथ्यू आर्नोल्ड ने भी साहित्य को जीवन की आलोचना मान है Poetry is at bottom, a criticism of life वर्सफील्ड नामक पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य की परिभाषा देते हुए लिखा है.- Lierature is the brain of humanity, अर्थात साहित्य मानवता का मस्तिष्क उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है.कि कवि या लेखक अपने समय का प्रतिनिधि होता है.जिस प्रकार बेतार के तार का संग्रह है यंत्र आकाश मंडल में विचरती, हुई विद्युत तरंगों को पकड़कर उन को शब्दों में परिवर्तित कर देता है.ठीक उसी प्रकार कवि या लेखक अपने समय के परिवेश में व्याप्त विचारों को पकड़कर साहित्य में मुखरित कर देते हैं.

साहित्यकार का महत्व- कवि और लेखक अपने समाज मस्तिष्क भी है.और मुख भी साहित्यकार की पुकार समाज की पुकार है.साहित्यकार समाज के भावो को व्यक्त कर संजीव और शक्तिशाली बना देता है.वह समाज का उन्नायकऔर शुभचिंतक होता है.उसकी रचना में समाज के शभा शव की झलक मिलती है.उसक उसके द्वारा हम समाज के हृदय तक पहुंच जाते हैं.

साहित्य और समाज का पारस्परिक संबंध- साहित्य और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है.साहित्य समाज का प्रतिबिंब है.साहित्य का सर्जन जनजीवन के धरातल पर ही होता है.समाज के समस्त शोभा उसकी श्री श्री सम्पन्नता और मान- मर्यादा साहित्य पर ही अवलम्बिन है.सामाजिक शक्ति या सजींवता सामाजिक अशांति और निर्जीवता एवं समाजिक सभ्यता यह असभ्यता का निर्णयक एकमात्र साहित्य ही है.कवि एवं समाज एक दूसरे को प्रभावित करते है.अतः साहित्य समाज से भिन्न नहीं है.यदि समाज शरीर है.तू साहित्य उसका मस्तिष्क आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में प्रत्येक देश का साहित्य वही की जनता की चिंतावृति सचित्त प्रतिबिम्ब है. साहित्य हमारे अमूर्त समस्त भाव को मूर्त रूप देता है.और उनका परिष्कार करता है वह हमारे विचारों की गुप्त शक्ति को सक्रिय करता है् साथ ही साहित्य गुप्त रूप से हमारे सामाजिक संगठन और जातिय जीवन के विकास में नियंत्रण योगदान करता रहता है.साहित्यकार हमारे महान विचारों का प्रतिनिधित्व करते है.इसीलिए हम उन्हें अपने जातिय सम्मान और गौरव के संरक्षक मानकर यथेष्ट सम्मान प्रदान करते है.जिस प्रकार शेक्सपियर एवं मिल्टन अंग्रेजों को गर्व है.उसी प्रकार कालिदास सूर एवं तुलसी पर हमें भी गर्व है.क्योंकि उसका इसका सच्चे हमें एक सस्कृति और एक जातीयता के सूत्र में बनता है.जैसा हमारी साहित्य होत है.वैसा ही हमारे मनोवृति बन जाती है. हम उन उन्हीं के अनुकूल आचरण करने लगते है.इस प्रकार साहित्य केवल हमारे समाज का दर्पण मात्र ना रहेगा उसका नियमाक और उन्नायक भी होता है.

सामाजिक परिवर्तन और साहित्य- साहित्य और समाज की इस अटूट संबंध को हम विश्व इतिहास के पृष्टो में भी पते है. फ्रांस की राज्यक्रांति के जन्मदाता वहां के साहित्यकार उसे और वाल्टेयर है.इटली में मेजिनी के लिए कौन है.जिसको प्रगति की ओर अग्रसर किया हमारे देश में प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में भारतीय ग्रामों की आंसुओं भरी व्यथा कथा मार्मिक रूप में व्यक्त किया किसानों पर जमींदारों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों का चित्रण कर जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार की दृष्टि से जो प्रयत्न किए गए है.वह प्रेमचंद आदि साहित्यकारों की रचनाओं में निहित प्रेरणा के ही परिणाम है. बिहारी ने तो मात्र 1 दोहे के माध्यम से ही अपनी नवोढा रानी के प्रेमपाश में बांधे हुए तथा अपनी प्रजा एवं राज्य के प्रति उदासीन राजा जयसिंह को राजकार्य की ओर प्रेरित कर दिया था-नहि पराग नहि मधुर नहि विकास इहि काल|अली ही सौ बंध्यो, आगै कौन हवाल.

साहित्य की शक्ति- निश्चय ही साहित्य असंभव को भी संभव बना देता है.भंयकरतम अस्त्र शस्त्रों से भी अधिक शक्ति छिपी है.आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती है.वह तो तलवार और बम के गोलो में भी नहीं पाई जाती यूरोप में हानिकारक धार्मिक रूढियो का उद्घाटन साहित्य ने किया है.जातीय स्वातन्त्र्य के बीज उसी ने बोए है.व्यक्तिगत स्वतंत्रता के भावो को भी उसी ने पाला -पोला और बढावा है.परि देशों का पुनरुत्थान भी उसी ने किया है.

साहित्य का लक्षण- साहित्य हमारे आंतरिक भावो को जीवित रखकर हमारे व्यक्तित्व को स्थिर रखता है. वर्तमान भारतवर्ष में दिखाई देने वाला परिवर्तन अधिकांशत: विदेशी साहित्य के प्रभाव का ही परिणाम है.रोम यूनान पर राजनीतिक विजय प्राप्त की थी.किंतु यूनान ने अपने साहित्य द्वारा रूम पर मानसिक एवं भावात्मक रूप से विजय प्राप्त की और इस प्रकार सारे यूरोप पर अपने विचार और संस्कृति की छाप लगा दी. साहित्य की विजय शाश्वत होती है.और शास्त्रों की विजय क्षणिक . अंग्रेज तलवार द्वारा भारत को दासता की श्रृंखला मे इतनी दृढता पूर्वक नहीं बांध सके जितना अपने साहित्य के प्रचार और हमारे साहित्य का ध्वंस करके सफल हो सके. यह उसी अंग्रेजी का प्रभाव है.कि हमारे सौंदर्य संबंधी विचार हमारी कला का आदर्श हमारा शिष्टाचार आदि सभी यूरोप के अनुरूप ही होते जा रहे हैं.

साहित्य और समाज का प्रभाव- सत्य तो यह है.कि साहित्य और समाज दोनों कदम से कदम मिलाकर चलते है.भारतीय साहित्य का उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि की जा सकती है.भारतीय दर्शन सुखान्तवादी है.यीशु दर्शन के अनुसार मृत्यु और जीवन अनंत है.तथा इस जन्म में बिछड़े पुरानी दूसरे जन्म में अवश्य मिलते है.यहां तक कि भारतीय दर्शन में ईश्वर का स्वरूप भी आनंदमय ही दर्शाया गया है. यहां के नाटक भी सुखान्त ही रहे है. इन्हीं सभी कारणों से भारतीय साहित्य आदर्शवादी भाव से परिपूर्ण और सुखान्तवादी दृष्टिकोण पर आधारित आधारित रहा है.इसी प्रकार भौगोलिक दृष्टि से भारत की शस्यश्यामला भूमि कल कल का स्वर उत्पन्न करती हुई नदियां हिमशिखरो की धवल शैलमालाएं, वसन्त और वरुण वर्षा के मनोहारी दृश्य आदि ने भी हिंदी साहित्य को कम प्रभावित नहीं किया है.

उपसंहार- अंत में हम कह सकते है.कि समाज और साहित्य में आत्मा और शरीर जैसा संबंध है,समाज और साहित्य एक दूसरे के पूरक है.इन्हें एक दूसरे से अलग करना संभव नहीं है.अत:आवश्यकता इस बात की है; की साहित्यकार सामाजिक कल्याण को ही अपना लक्ष्य बनाकर साहित्य का सृजन करते रहे.

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